अध्ययनः भजन संहिता 46ः 1-11
तूफान में सबसे सुरक्षित स्थान
“यहोवा भला हैय संकट के दिन में वह दृढ़ गढ़ ठहरता है, और अपने शरणागतों की सुधि रखता है।“ (नहूम 1ः7)
इस दुनिया में सुरक्षा का एकमात्र स्थान उनके पंखों की छाया में रहना है। पवित्र शास्त्र इसे ‘‘एक किला जिसमें धर्मी भागकर सुरक्षित रहते हैं,‘‘ एक ‘‘मजबूत मीनार‘‘ और ‘‘एक बड़ी चट्टान की छाया‘‘ के रूप में चित्रित करता है। कई साल पहले योसेमाइट घाटी पर सिलसिलेवार भूकंपों का हमला हुआ था। जो कुछ निवासी वहां रहते थे उन्हें रात में अपने बिस्तरों से बाहर निकाल दिया गया था। कमजोर झोपड़ियाँ पलट दी गईं। झटके कई दिनों तक बार-बार आते रहे और लोग दहशत में रहे। बाद में जब उनसे पूछा गया, ‘‘आप कैसे बच गए?‘‘, तो एक निवासी ने शक्तिशाली, अचल चट्टान एलकैप्टन की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह चट्टान घाटी के दक्षिण की ओर तीन हजार फीट तक ऊंची है और इसका आधार तीन मील है। हमने उस चट्टान के नीचे जाकर डेरा डालने का निश्चय किया, क्योंकि अगर वह कभी भी हिलती तो हमें पता होता कि दुनिया खत्म हो जाएगी।”
प्रिय दोस्तों, भूकंप की तरह ही, हमारे जीवन में भी तूफान विभिन्न तीव्रता और आवृत्तियों के साथ आते हैं। अक्सर वे बिना किसी चेतावनी के हमला करते हैं और रुके रहते हैं और वे हमारे विश्वास और सहनशक्ति की सीमा का परीक्षण करते हैं। लेकिन परमेश्वर ने हमारी परिस्थितियों के बीच हमें सुरक्षा का स्थान दिया है। भजनहार विश्वासपूर्वक कहता है, “परमेश्वर हमारा शरणस्थान और बल है, संकट में अति सहज से मिलनेवाला सहायक है। इस कारण हम को कोई भय नहीं चाहे पृय्वी उलट जाएँ। ” (भजन संहिता 46ः1-2) परमेश्वर स्वयं हमारी सुरक्षा के केंद्र है। यह हमारी नहीं बल्कि उनकी ताकत है, जो हमें परिस्थिति और परिवर्तन की तेज हवाओं से बचाती है। तो आइए हम प्रभु की अच्छाई पर तब भी विश्वास करें, जब हम इसे इंद्रिय की आंखों से नहीं पहचान सकते है। आइए जब मुसीबत के तूफान आएं तो हम उनकी सुरक्षा के लिए उड़ान भरें। आइए हम उनकी प्रेमपूर्ण देखभाल पर विश्वास करें और अपनी संपूर्ण सुरक्षा के लिए उन पर भरोसा करें।
प्रार्थनाः प्रिय प्रभु, जब जीवन के तूफान मुझे डराएँ, तो मुझे सुरक्षा के लिए आपके पास दौड़ने दीजिए। आप मेरे छिपने की जगह हो। जब मैं आपके पंखों की छाया में शरण लेता हूं तो शत्रु मुझे नुकसान नहीं पहुंचा सकता है। इसी आत्मविश्वास के साथ मैं तूफानों का सामना करता हूँ और विजयी होकर बाहर आता हूँ। आमीन।
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